Tuesday, August 5, 2014

शिवताण्डवस्तोत्रम् (श्रीरावणकृत) Shiv Tandav Stotram (Sri Ravana krit)



 

 

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले  
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं 
चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम् ॥ १ ॥

जिन्होंने जटारुपी अटवी (वन)- से निकलती हुई गंगाजीके गिरते हुए प्रवाहोंसे पवित्र किये गये गलेमें सर्पोंकी लटकती हुई विशाल मालाको धारणकर, डमरुके डम-डम शब्दोंसे मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याणका विस्तार करें ॥ १ ॥


जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके 

किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम ॥ २ ॥

  जिसका मस्तक जटारुपी कड़ाहमें वेगसे घूमती हुई गङ्गाकी चञ्चल तरङ्ग-लताओंसे सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, सिरपर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव)- में मेरा निरन्तर अनुराग हो ॥ २ ॥
  

धराधरेन्द्रनन्दनीविलासबन्धुबन्धुर- 
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरिणीनिरुद्धदुर्धरापदि 

क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३ ॥

गिरिराजकिशोरी पार्वतीके विलासकालोपयोगी शिरोभूषणसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित होते देख जिनका मन आनन्दित हो रहा है, जिनकी निरन्तर कृपादृष्टिसे कठिन आपत्तिका भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर तत्त्वमें मेरा मन विनोद करे ॥ ३ ॥  


   जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा- 
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फूरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे 

मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ४ ॥

जिनके जटाजूटवर्ती भुजङ्गमोंके फणोंकी मणियोंका फैलता हुआ पिङ्गल प्रभापुञ्ज दिशारुपिणी अङ्गनाओंके मुखपर कुङ्कुमरागका अनुलेप कर रहा है, मतवाले हाथीके हिलते हुए चमड़ेका उत्तरीय वस्त्र (चादर) करनेसे स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनामें मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ॥  ४ ॥


  सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर- 
प्रसूनधूलिधोरिणीविधूसराङघ्रिपीठभू: ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक: 

श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ ५ ॥ 

जिनकी चरणपादुकाएँ इन्द्र आदि समस्त देवताओंके [प्रणाम करते समय] मस्तकवर्ती कुसुमोंकी धूलिसे धूसरित हो रही है; नागराज (शेष)- के हारसे बँधी हुई जटावाले वे भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिये चिरस्थायिनी सम्पत्तिके साधक हों ॥ ५ ॥   

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा- 
निपीतपञ्चसायकं नमन्नीलिम्पनायम् । 
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं 
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ ६ ॥

जिसने ललाट-वेदीपर प्रज्वलित हुई अग्निके स्फुलिङ्गोंके तेजसे कामदेवको नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकरकी कलासे से सुशोभित मुकुटवाला वह [श्रीमहादेवजीका] उन्नत विशाल ललाटवाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्तिका साधक हो ॥ ६ ॥  

करालभालपट्टिकाद्धगद्धगज्ज्वल- 
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दनीकुचाग्रचित्रपत्रक- 

प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम ॥ ७ ॥

जिन्होंने अपने विकराल भालपट्टपर धक् धक् जलती हुई अग्निमें प्रचण्ड कामदेवको हवन कर दिया था, गिरिराजकिशोरीके स्तनोंपर पत्रभङ्गरचना करनेके एकमात्र कलाकार उन भगवान् त्रिलोचनमें मेरी धारणा लगी रहे ॥ ७ ॥  

नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर- 
त्कुहूनिशीथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: 

कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ ८ ॥

जिनके कण्ठमें नवीनमेघमालासे घिरी हुई अमावस्याकी आधी रातके समय फैलते हुए दुरुह अन्धकारके समान श्यामता अङ्कित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं, वे संसारभारको धारण करनेवाले चन्द्रमा [- के सम्पर्क]- से कान्तिवाले भगवान् गङ्गाधर मेरी सम्पत्तिका विस्तार करें ॥ ८ ॥ 

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपञ्चकालिमप्रभा- 
वलम्बिकण्ठकन्दलीरूचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं 

गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९ ॥

जिनका कण्ठदेश खिले हुए नीलकमल समूहकी श्याम प्रभाका अनुकरण करनेवाली हरिणीकी-सी छविवाले चिह्नसे सुशोभित हैं तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराजका भी उच्छेदन (संहार) करनेवाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ॥ ९ ॥  

अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी- 
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं 

गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ १० ॥

जो अभिमानरहित पार्वतीकी कलारुप कदम्बमञ्जरीके मकरन्द-स्त्रोतकी बढ़ती हुई माधुरीके पान करनेवाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराजका भी अन्त करनेवाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ॥ १० ॥ 

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस- 
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल- 

ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डव: शिव: ॥ ११ ॥

जिनके मस्तकपर बड़े वेगके साथ घूमते हुए भुजङ्गके फुफकारनेसे ललाटकी भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदङ्गके गम्भीर मङ्गल घोषके क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान् शंकरकी जय हो ॥ ११ ॥  

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्त्रजो- 
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुह्यद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: 

समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ १२ ॥

पत्थर और सुन्दर बिछौनोंमें, साँप और मुक्ताकी मालामें, बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टीके ढेलेमें, मित्र या शत्रुपक्षमें, तृण अथवा कमललोचना तरुणीमें, प्रजा और पृथ्वीके महाराजमें समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूँगा ? ॥ १२ ॥ 

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् 
विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक: 

शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ १३ ॥

सुन्दर ललाटवाले भगवान् चन्द्रशेखरमें दत्तचित्त हो अपने कुविचारोंको त्यागकर गङ्गाजीके तटवर्ती निकुञ्जके भीतर रहता हुआ सिरपर हाथ जोड़ डबडबायी हुई विह्वल आँखोंसे 'शिव' मन्त्रका उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ? ॥ १३ ॥  

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं 
पठन स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं 

विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ १४ ॥

जो मनुष्य इस प्रकारसे उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्रका नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु श्रीशङ्करजीकी अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्धगतिको नहीं प्राप्त होता; क्योंकि श्रीशिवजीका अच्छी प्रकारका चिन्तन प्राणिवर्गके मोहका नाश करनेवाला है ॥ १४ ॥  

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं 
य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतु
ङ्गयुक्तां 
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाती शम्भु: ॥ १५ ॥ 

सायंकालमें पूजा समाप्त होनेपर रावणके गाये हुए इस शम्भू-पूजन-सम्बन्धी स्तोत्रका जो पाठ करता है, भगवान् शङ्कर उस मनुष्यको रथ, हाथी, घोड़ोंसे युक्त सदा स्थिर रहनेवाली अनुकूल सम्पत्ति देते हैं ॥ १५ ॥
 
 

॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्
 

                      ॥ इस प्रकार श्रीरावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥                          

 

   करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
   विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥

Sunday, June 22, 2014

*श्रीकाशीविश्वेश्वरादिस्तोत्रम्*




*श्रीकाशीविश्वेश्वरादिस्तोत्रम्*


 

नमः श्रीविश्वनाथाय देववन्द्यपदाय ते ।
काशीशेशावतारो मे देवदेव ह्युपादिश ॥ १ ॥


हे देवदेव! आपने काशीमें शासन करनेके हेतु मङ्गलमूर्ति शिवके रुपमें अवतार लिया है। आप विश्वके नाथ हैं. देवता आपके चरणोंकी वन्दना करते हैं, आप मुझे उपदेश दें, आपको नमस्कार है ॥ १॥
 


मायाधीशं महात्मानं सर्वकारणकारणम् ।
वन्दे तं माधवं देवं यः काशीं चाधितिष्ठति ॥ २ ॥


जो मायाके अधीश्वर हैं, महान आत्मा हैं, सभी कारणोंके कारण हैं और जो काशीको सदा अपना अधिष्ठान बनाये हुए हैं, ऐसे उन भगवान माधवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥

 

वन्दे तं धर्मगोप्तारं सर्वगुह्यार्थवेदिनम् ।
गणदेवं ढुण्ढिराजं तं महान्तं सुविघ्नहम् ॥ ३ ॥


जो बड़े-से-बड़े विघ्नको अनायास ही बिना किसी प्रकारका श्रम किये ही नष्ट कर देते हैं, धर्मके रक्षक और सभी गुह्य (रहस्यपूर्ण) अर्थोंके वेत्ता हैं, ऐसे उन महान् ढुण्ढिराज गणपतिको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३ ॥



भारं वोढुं स्वभक्तानां यो योगं प्राप्त उत्मम् ।
तं सढुण्ढिं दण्डपाणिं वन्दे गङ्गातटस्थितम् ॥ ४ ॥




जिन्होंने अपने भक्तोंका भार वहन करनेके लिये उत्तम योग प्राप्त किया है, ऐसे गङ्गातटपर स्थित ढुण्ढिराज सहित भगवान् दण्डपाणिको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥



भैरवं दंष्ट्राकरालं भक्ताभयकरं भजे ।
दुष्टदण्डशूलशीर्षधरं वामाध्वचारिणम् ॥ ५ ॥



बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, भक्तोंको अभय कर देनेवाले, वाममार्गका आचरण करनेवाले, दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये शूल तथा शीर्ष (कपाल) धारण करनेवाले भगवान् भैरवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ५ ॥


श्रीकाशीं पापशमणीं दमनीं दुष्टचेतसः ।
स्वर्निःश्रेणिं चाविमुक्तपुरीं मर्त्यहितां भजे ॥ ६ ॥




श्रीकाशी पापोंका शमन तथा दुष्टचित्तवालोंका दमन करनेवाली और स्वर्गकी सीढ़ी है। यह भगवान् शिवके द्वारा कभी न परित्याग किये जानेवाली है, (इसलिये इसे 'अविमुक्तपुरी' कहा जाता है), मृत्युलोकके प्राणियोंके लिये यह हितकारिणी है। इस पुरीका मैं सेवन करता हूँ ॥ ६ ॥


नमामि चतुराराध्यां सदाऽणिम्नि स्थितिं गुहाम् ।
श्रीगङ्गे भैरवीं दूरीकुरु कल्याणि यातनाम् ॥ ७ ॥



विद्वानोंद्वारा आराध्य, अणिमा ऐश्वर्यमें स्थित गुहाको मैं नमस्कार करता हूँ। हे कल्याणरुपिणी गङ्गे! आप मेरी भैरवी यातनाको दूर कर दें ॥ ७ ॥


भवानि रक्षान्नपूर्णे सद्वर्णितगुणेऽम्बिके ।
देवर्षिवन्द्याम्बुमणिकर्णिकां मोक्षदां भजे ॥ ८ ॥




हे अन्नपूर्णे, हे अम्बिके, हे सत्पुरुषोंके द्वारा वर्णित गुणोंवाली भवानि! आप हमारी रक्षा कीजिये। देवताओं और ऋषियोंद्वारा वन्द्य तथा समस्त संसारको मोक्ष प्रदान करनेवाली जलमयी मणिकर्णिकाका मैं सेवन करता हूँ ॥ ८  ॥

 

॥ इति श्रीकाशीविश्वेश्वरादिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥



॥ इस प्रकार श्रीकाशीविश्वेश्वरादि स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥





Monday, June 16, 2014

शिवस्तुतिः (श्रीस्कनदमहापुराणे कुमारिकाखण्डे)



~ शिवस्तुतिः ~


स्कन्द उवाच:


नमः शिवायास्तु निरामयाय नमः शिवायास्तु मनोमयाय ।
नमः शिवायास्तु सुरार्चिताय तुभ्यं सदा भक्तकृपापराय ॥ १  ॥



:: स्कन्दजी बोले- जो सब प्रकारके रोग-शोकसे रहित हैं, उन कल्याणस्वरुप भगवान् शिव को नमस्कार है। जो सबके भीतर मनरुपसे निवास करते हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार है। सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित भगवान् शङ्करको नमस्कार है। भक्तजनों पर निरन्तर कृपा करनेवाले आप भगवान् महेश्वरको नमस्कार है ॥ १ ॥


नमो भवायास्तु भवोद्भवाय नमोऽस्तु ते ध्वस्तमनोभवाय ।
नमोऽस्तु ते गूढमहाव्रताय नमोऽस्तु मायागहनाश्रयाय ॥ २ ॥



:: सबकी उत्पत्तिके कारण भगवान् भवको नमस्कार है। भगवन्! आप भवके उद्भव (संसारके स्त्रष्टा) हैं, आपको नमस्कार है। कामदेवका विध्वंस करनेवाले आपको नमस्कार है। आप गूढ़भावसे महान् व्रतका पालन करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप मायारुपी गहन वनके आश्रय हैं अथवा सबको आश्रय देनेवाला आपका स्वरुप योगमायासमावृत होनेके कारण दुर्बोध है, आपको नमस्कार है ॥ २ ॥


नमोऽस्तु शर्वाय नमः शिवाय नमोऽस्तु सिद्धाय पुरातनाय ।
नमोऽस्तु कालाय नमः कलाय नमोऽस्तु ते कालकलातिगाय ॥ ३ ॥



:: प्रलयकालमें जगतका संहार करनेवाले 'शर्व' नामधारी आपको नमस्कार है। शिवस्वरुप आपको नमस्कार है। आप पुरातन सिद्धरुप हैं, आपको नमस्कार है। कालरुप आपको नमस्कार है। आप सबकी कलना (गणना) करनेवाले होनेके कारण 'कल' नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। आप कालकी कलाका अतिक्रमण करके उससे बहुत दूर रहते हैं, आपको नमस्कार है॥ ३ ॥


नमो निसर्गात्मकभूतिकाय नमोऽस्त्वमेयोक्षमहर्द्धिकाय ।
नमः शरण्याय नमोऽगुणाय नमोऽस्तु ते भीमगुणानुगाय ॥ ४ ॥



:: आप स्वाभाविक ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है। आप अप्रमेय महिमावाले वृषभ तथा महासमृद्धिसे सम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है। आप सबको शरण देनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही निर्गुण ब्रह्म हैं, आपको नमस्कार है। आपके अनुगामी सेवक भयानक गुणसम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है ॥ ४ ॥


नमोऽस्तु नानाभुवनाधिकर्त्रे नमोऽस्तु भक्ताभिमतप्रदात्रे ।
नमोऽस्तु कर्मप्रसवाय धात्रे नमः सदा ते भगवन् सुकर्त्रे ॥  ५ ॥



:: नाना भुवनोंपर अधिकार रखनेवाले आपको नमस्कार है। हे भगवन्! आप ही सबका धारण-पोषण करनेवाले धाता तथा उत्तम कर्ता हैं, आपको सर्वदा नमस्कार है ॥ ५  ॥


अनन्तरुपाय सदैव तुभ्यमसह्यकोपाय सदैव तुभ्यम् ।
अमेयमानाय नमोऽस्तु तुभ्यं वृषेन्द्रयानाय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ ६  ॥



:: आपके अनन्त रुप हैं, आपका कोप सबके लिये असह्य है, आपको सदैव नमस्कार है। आपके स्वरुपका कोई माप नहीं हो सकता, आपको नमस्कार है। वृषभेन्द्रको अपना वाहन बनानेवाले आप भगवान् महेश्वरको नमस्कार है ॥ ६ ॥


नमः प्रसिद्धाय महौषधाय नमोऽस्तु ते व्याधिगणापहाय ।
चराचरायाथ विचारदाय कुमारनाथाय नमः शिवाय ॥ ७ ॥



:: आप सुप्रसिद्ध महौषधरुप हैं, आपको नमस्कार है। समस्त व्याधियोंका विनाश करनेवाले आपको नमस्कार है। आप चराचरस्वरुप, सबको विचार तत्त्वनिर्णयात्मिका शक्ति देनेवाले, कुमारनाथके नामसे प्रसिद्ध तथा परम कल्याणस्वरुप हैं, आपको नमस्कार है ॥ ७ ॥


ममेश भूतेश महेश्वरोऽसि कामेश वागीश बलेश धीश ।
क्रोधेश मोहेश परापरेश नमोऽस्तु मोक्षेश गुहाशयेश ॥  ८ ॥



:: प्रभो! आप मेरे स्वामी हैं, सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर एवं महेश्वर हैं। आप ही समस्त भोगोंके अधिपति हैं। वाणी, बल और बुद्धिके अधिपति भी आप ही हैं। आप ही क्रोध और मोहपर शासन करनेवाले हैं। पर और अपर (कारण और कार्य)- के स्वामी भी आप ही हैं। सबकी ह्रदयगुहामें निवास करनेवाले परमेश्वर तथा मुक्तिके अधीश्वर भी आप ही हैं, आपको नमस्कार है ॥ ८ ॥


शिव उवाच:


ये च सायं तथा प्रातस्त्वनकृतेन स्तवेन माम् ।
स्तीष्यन्ति परया भक्त्या श्रृणु तेषां च यत्फलम् ॥  ९  ॥



न व्याधिर्न च दारिद्र्यं न च चैवेष्टवियोजनम् ।
भुक्त्वा भोगान दुर्लभांश्च मभ यास्यन्ति सह्य ते ॥  १० ॥



:: शिवजीने कहा- जो लोग सायंकाल और प्रातःकाल पूर्ण भक्तिपूर्वक तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, उनको जो फल प्राप्त होगा, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो- उन्हें कोई रोग नहीं होगा, दरिद्रता भी नहीं होगी तथा प्रिय जनोंसे कभी वियोग भी न होगा। वे इस संसार में दुर्लभ भोगोंका उपयोग करके मेरे परमधामको प्राप्त करेंगे ॥ ९ - १०  ॥


॥ इति श्रीस्कनदमहापुराणे कुमारिकाखण्डे शिवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके कुमारिकाखण्डमें शिवस्तुति सम्पूर्ण हुई ॥




Sunday, June 8, 2014

हिमालयकृतं शिवस्तोत्रम्


~ हिमालयकृतं शिवस्तोत्रम् ~

हिमालय उवाच:

त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः ।
त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकारकः ॥ १ ॥



:: हिमालयने कहा-- [हे परम शिव!] आप ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। आप ही जगतके पालक विष्णु हैं। आप ही सबका संहार करनेवाले अनन्त हैं और आप ही कल्याणकारी शिव हैं ॥ १ ॥

त्वमीश्वरो गुणातीतो ज्योतिरुपः सनातनः ।
प्रकृतिः प्रकृतीश्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ॥ २ ॥

:: आप गुणातीत ईश्वर, सनातन ज्योतिःस्वरुप हैं। प्रकृति और प्रकृतिके ईश्वर हैं। प्राकृत पदार्थ होते हुए भी प्रकृतिसे परे हैं ॥ २ ॥

नानारुपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे ।
येषु रुपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं बिभर्षि च ॥ ३ ॥
 
:: भक्तोंके ध्यान करनेके लिये आप अनेक रुप धारण करते हैं। जिन रुपोंमें जिसकी प्रीति है, उसके लिये आप वही रुप धारण कर लेते हैं ॥ ३ ॥ 


सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम् ।
सोमस्त्वं शस्य पाता च सततं शीतरश्मिना ॥ ४ ॥
 
:: आप ही सृष्टिके जन्मदाता सूर्य हैं। समस्त तेजोंके आधार हैं। आप ही शीतल किरणोंसे सदा शस्योंका पालन करनेवाले सोम हैं ॥ ४ ॥ 


वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः ।
इन्द्रस्त्वं देवराजश्च कालो मृत्युर्यमस्त्था ॥ ५ ॥
 
:: आप ही वायु, वरुण और सर्वदाहक अग्नि हैं। आप ही देवराज इन्द्र, काल, मृत्यु तथा यम हैं ॥ ५ ॥

मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः ।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ६ ॥
 
:: मृत्युञ्जय होनेके कारण मृत्युकी भी मृत्यु, कालके भी काल तथा यमके भी यम हैं। वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान भी आप ही हैं ॥ ६ ॥

विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्च विदुषां गुरुः ।
मन्त्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ॥ ७ ॥


:: आप ही विद्वानोंके जनक, विद्वान तथा विद्वानोंके गुरु हैं। आप ही मन्त्र, जप, तप और उनके फलदाता हैं ॥ ७ ॥

वाक् त्वं वागधिदेवी त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम् ।
अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ ८ ॥
 
:: आप ही वाक् और आप ही वाणीकी अधिष्ठात्री देवी हैं। आप ही उसके स्त्रष्टा और गुरु हैं।
अहो ! सरस्वतीबीजस्वरुप आपकी स्तुति यहाँ कौन कर सकता है ॥ ८ ॥


इत्येवमुक्तवा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम् ।
तत्रोवास तमोबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ॥ ९ ॥
 
:: ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय उन (भगवान् शिवजी) -के चरणकमलोंको पकड़कर खड़े रहे। भगवान् शिवने वृषभसे उतरकर शैलराजको प्रबोध देकर वहाँ निवास किया ॥ ९ ॥ 


स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्च भवार्णवे ॥ १० ॥
 

:: जो मनुष्य तीनों संध्याओंके समय इस परम पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करता है, वह भवसागरमें रहकर भी समस्त पापों तथा भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १० ॥


अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद् यदि ।
भार्याहीनो लभेद् भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ॥ ११ ॥
 
पुत्रहीन मनुष्य यदि एक मासतक इसका पाठ करे तो पुत्र पाता है। भार्याहीनको सुशीला तथा परम मनोहारिणी भार्या प्राप्त होती है ॥ ११ ॥


चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।
राज्यभ्रष्टो लभेद् राज्यं शङ्करस्य प्रसादतः ॥ १२ ॥
 
:: वह चिरकालसे खोयी हुई वस्तुको सहसा तथा अवश्य पा लेता है। राज्यभ्रष्ट पुरुष भगवान् शंकरके प्रसादसे पुनः राज्यको प्राप्त कर लेता है ॥ १२ ॥

कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेऽतिसङ्कटे ।
गभीरेऽतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ॥ १३ ॥



रणमध्ये महाभीते हिंस्त्रजन्तुसमन्विते ।
सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शङ्करस्य प्रसादतः ॥ १४ ॥


॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणे हिमालयकृतं शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


:: कारागार, श्मशान और शत्रु-संकटमें पड़नेपर तथा अत्यन्त जलसे भरे गम्भीर जलाशयमें नाव टूट जानेपर, विष खा लेनेपर, महाभयंकर संग्रामके बीच फँस जानेपर तथा हिंसक जन्तुओंसे घिर जानेपर इस स्तुतिका पाठ करके मनुष्य भगवान् शंकरकी कृपासे समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १३-१४ ॥ 


इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणमें हिमालकृत शिवस्तोतत्र सम्पूर्ण हुआ ॥





Monday, June 2, 2014

श्रीरुद्राष्टकं - श्रीगोस्वामितुलसीदासकृत







नमामी शमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेsहं ॥ १ ॥

I bow to the Ruler of the Universe, whose very form is Liberation,
the omnipotent and all pervading Brahma, manifest as the Vedas.
I worship Shiva, shining in his own glory, without physical qualities,
Undifferentiated, desireless, all pervading sky of consciousness
and wearing the sky itself as His garment.

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोsहं ॥ २ ॥

I bow to the supreme Lord who is the formless source of “OM”
The Self of All, transcending all conditions and states,
Beyond speech, understanding and sense perception,
Awe-full, but gracious, the ruler of Kailash,
Devourer of Death, the immortal abode of all virtues.

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा
लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥ ३ ॥

I worship Shankara, whose form is white as the Himalyan snow,
Radiant with the beauty of countless Cupids,
Whose head sparkles with the Ganga
With crescent moon adorning his brow and snakes coiling his neck.

चलतकुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४ ॥

The beloved Lord of All,
with shimmering pendants hanging from his ears,
Beautiful eyebrows and large eyes,
Full of Mercy with a cheerful countenance and a blue speck on his throat.

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखंडं अजं भानुकोटीप्रकाशं ।
त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणीं
भजेsहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥ ५ ॥

I worship Shankara, Bhavani’s husband,
The fierce, exalted, luminous supreme Lord.
Indivisible, unborn and radiant with the glory of a million suns;
Who, holding a trident, tears out the root of the three-fold suffering,
And who is reached only through Love.

कालातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्द दातापुरारी ।
चिदानंद संदोह मोहापहारी
प्रसिद प्रसिद प्रभो मन्मथारी ॥ ६ ॥

You who are without parts, ever blessed,
The cause of universal destruction at the end of each round of creation,
A source of perpetual delight to the pure of heart,
Slayer of the demon, Tripura, consciousness and bliss personified,
Dispeller of delusion…
Have mercy on me, foe of Lust.

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नाराणाम् ।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसिद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥ ७ ॥

Oh Lord of Uma, so long as you are not worshipped
There is no happiness, peace or freedom from suffering
in this world or the next.
You who dwell in the hearts of all living beings,
and in whom all beings have their existence,
Have mercy on me, Lord.

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोsहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८ ॥

I don’t know yoga, prayer or rituals,
But everywhere and at every moment, I bow to you, Shambhu!
Protect me my Lord, miserable and afflicted as I am
with the sufferings of birth, old-age and death.


रुद्राष्टकम इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भु: प्रसीदति ॥ ९ ॥

।। इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ।।

https://www.facebook.com/notes/s-chandra-sekhar/%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%95%E0%A4%AE-%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4/411539094494

Sunday, August 11, 2013

शम्भुस्तुतिः (श्रीब्रह्मपुराणे शम्भुस्तुतिः)


'शम्भुस्तुतिः'

श्रीराम उवाच: 

नमामि शम्भुं पुरुषं पुराणः नमामि सर्वज्ञमपारभावम् । 
नमामि रुद्रं प्रभुमक्षयं तं नमामि शर्वं शिरसा नमामि ॥ १

नमामि देवं परमव्ययं तमुमापतिं लोकगुरुं नमामि । 
नमामि दारिद्र्यविदारणं तं नमामि रोगपहरं नमामि ॥   

नमामि कल्याणमचिन्त्यरुपं नमामि विश्वोद्भवबीजरुपम् । 
नमामि विश्वस्थितिकारणं तं नमामि संहारकरं नमामि ॥

नमामि गौरिप्रियमव्ययं तं नमामि नित्यं क्षरमक्षरं तम् । 
नमामि चिद्रूपममेयभावं त्रिलोचनं तं शिरसा नमामि ॥

नमामि कारुण्यकरं भवस्य भयंकरं वाऽपि सदा नमामि । 
नमामि दातारमभीप्सितानां नमामि सोमेशमुमेशमादौ ॥

नमामि वेदत्रयलोचनं तं नमामि मूर्तित्रयवर्जितं तम् । 
नमामि पुण्यं सदसद्व्यतीतं नमामि तं पापहरं नमामि ॥

नमामि विश्वस्य हिते रतं तं नमामि रुपाणि बहूनि धत्ते । 
यो विश्वगोप्ता सदसत्प्रणेता नमामि तं विश्वपतिं नमामि ॥  

यज्ञेश्वरं सम्प्रति हव्यकव्यं तथागतिं लोकसदाशिवो यः । 
आराधितो यश्च ददाति सर्वं नमामि दानप्रियमिष्टदेवम् ॥

नमामि सोमेश्वरमस्वतन्त्रमुमापतिं तं विजयं नमामि । 
नमामि विघ्नेश्वरनन्दिनाथं पुत्रप्रियं तं शिरसा नमामि ॥

नमामि देवं भवदुःखशोकविनाशनं चन्द्रधरं नमामि । 
नमामि गङ्गाधरमीशमीड्यमुमाधवं देववरं नमामि ॥ १०

नमाम्यजादीशपुरन्दरादिसुरासुरैरर्चितपादपद्मम् । 
नमामि देवीमुखवादनानामीक्षार्थमक्षित्रितयं य ऐच्छत् ॥ ११

पञ्चामृतैर्गन्धसुधूपदीपैर्विचित्रपुष्पैर्विविधैश्च मन्त्रैः । 
अन्नप्रकारैः सकलोपचारैः सम्पूजितं सोममहं नमामि ॥ १२

॥ इति श्रीब्रह्मपुराणे शम्भुस्तुतिः सम्पूर्णा ॥

बिल्वाष्टकम्


'बिल्वाष्टकम्'

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ १ ॥

त्रिशाखैर्बिल्वपत्रैश्च ह्याच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
शिवपूजां करिष्यामि बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ २ ॥


अखण्डबिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।
शुद्धयन्ति सर्वपापेभ्यो बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ३ ॥


 शालिग्रामशिलामेकां विप्राणां जातु अर्पयेत् ।
सोमयज्ञमहापुण्यं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ४ ॥


दन्तिकोटिसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
कोटिकन्यामहादानं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ५ ॥


लक्ष्म्या स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम् ।
बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ६ ॥


दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ७ ॥


मूलतो ब्रह्मरुपाय मध्यतो विष्णुरुपिणे ।
अग्रतः शिवरुपाय बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥ ८ ॥


बिल्वाष्टमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधो ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकमवाप्नुयात् ॥ ९ ॥

 
॥ इति बिल्वाष्टकं सम्पूर्णम् ॥ 

Photo: https://www.facebook.com/pages/Pashupati-Nath-Mandir-Mandsaur/170045343148558