~ श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् ~
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नमः इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ १ ॥
जो अपने ह्रदय स्थित दर्पणमें दृश्यमान नगरी-सदृश विश्व को
निद्राद्वारा स्वप्नकी भाँति मायाद्वारा बाहर प्रकट हुए की तरह आत्मामें
देखते हुए ज्ञान होने पर अथवा निद्रा भांग होने पर अपने अद्वितीय आत्माका
साक्षात्कार करते हैं, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्ती को यह मेरा
नमस्कार है ॥ १ ॥
बीजस्यान्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्निर्विकल्पं शनै-
र्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचि त्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नमः इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ २ ॥
जिन्होंने महायोगीकी तरह अपनी इच्छासे सृष्टिके पूर्व
निर्विकल्प-रुपसे स्थित इस जगत् को बीजके भीतर स्थित अङ्कुरकी भाँति
मायाद्वारा कल्पित देश, काल और धारणाकी विचित्रतासे चित्रित किया है तथा
मायावी-सदृश जँभाई लेते हुए-से दीखते हैं, उन श्रीगुरुस्वरुप
श्रीदक्षिणामूर्तिको मेरा नमस्कार है ॥ २ ॥
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात् तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ३ ॥
जिसका सदात्मक स्फुरण ही असत्-तुल्य भासित होता है, जो अपने
आश्रितोंको 'साक्षात् तत्त्वमसि' अर्थात् 'तुम साक्षात् वही ब्रह्म हो' इस
वेद-वाक्यद्वारा ज्ञान प्रदान करते हैं तथा जिनका साक्षात्कार करने से
पुनः भवसागरमें आवागमन नहीं होता, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको
यह मेरा नमस्कार है ॥ ३ ॥
नानाछिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत् समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ४ ॥
अनेक छिद्रोंवाले घटके भीतर स्थित विशाल दीपककी उज्जवल
प्रभाके समान ज्ञान जिनके नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा बाहर प्रसरित होता है
तथा जैसा मैं समझता हूँ कि उसीके प्रकाशित होनेपर यह सम्पूर्ण जगत्
प्रकाशित होता है, उन श्रीदक्षिणामूर्तिको यह मेरा नमस्कार है ॥ ४ ॥
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिँ च शून्यं विदुः
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणे
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ५ ॥
भ्रमित हुए बहुवादी-शून्यवादी बौद्ध आदि देह, प्राण,
इन्द्रियोंको तथा तीव्र बुद्धिको भी स्त्री, बालक, अंध और जड़की तरह शून्य
मानते हैं तथा 'अहं' को ही प्रधानता देते हैं, ऐसे माया-शक्तिके विलाससे
कल्पित महामोहका संहार करनेवाले उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको यह
मेरा नमस्कार है ॥ ५ ॥
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत् सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नमः इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ६ ॥
जो पुरुष राहुद्वारा ग्रस्त सूर्य-चन्द्रके समान मायाद्वारा
समाच्छादित होनेके कारण सन्मात्रका इन्द्रियोंद्वारा उपसंहार करके सो गया
था, उसे निद्रामें लीन होनेपर अथवा जागनेके पश्चात जो प्रत्यभिज्ञातुल्य
भासित होता है, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्ति को मेरा नमस्कार है ॥ ६
॥
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमि त्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ७ ॥
जो अपने भक्तोंके समक्ष भद्रा मुद्राद्वारा बाल, युवा,
वृद्ध, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा सभी व्यावर्तित अवस्थाओंमें भी
अनुवर्तमान एवं सदा 'अहं' रुपसे अन्तःकरणमें स्फुरमाण स्वात्माको प्रकट
करते हैं, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको यह मेरा नमस्कार है ॥ ७ ॥
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामित-
स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ८ ॥
जिनकी मायाद्वारा परिभ्रमित हुआ यह पुरुष स्वप्न अथवा
जाग्रत-अवस्थामें विश्वको कार्य-कारण, स्वामी-सेवक, शिष्य-आचार्य तथा
पिता-पुत्रके भेदसे देखता है, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको यह
नमस्कार है ॥ ८ ॥
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमह र्नाथो हिमांशुः पुमा-
नित्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात् परस्माद्विभो-
स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ९ ॥
जिनकी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा,
पुरुष__ये आठ मूर्तियाँ ही इस चराचर जगतके रुपमें प्रकाशित हो रही है तथा
विचारशीलोंके लिये जिन परात्पर विभुके अतिरिक्त अन्य नहीं हैं, उन
श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको यह मेरा नमस्कार है ॥ ९ ॥
सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात् तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादिश्वरत्वं स्वतः
सिध्येत् तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ॥ १० ॥
चूँकि इस स्तोत्रमें यह स्पष्ट किया गया है कि यह चराचर
जगत् सर्वात्मस्वरुप है, इसलिये इसका श्रवण, इसके अर्थका मनन, ध्यान और
संकीर्तन करनेसे स्वतः सर्वात्मस्वरुप महाविभूतिसहित ईश्वरत्वकी प्राप्ति
होती है, पुनः आठ रुपोंमें परिणत हुआ स्वछन्द ऐश्वर्य भी सिद्ध हो जाता है ॥ १० ॥
वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं
सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं
जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥ ११ ॥
जो वटवृक्षके समीप भूमिभागपर स्थित हैं, निकट बैठे हुए
समस्त मुनिजनोंको ज्ञान प्रदान कर रहे हैं, जन्म-मरणके दुःखका विनाश
करनेमें प्रवीण हैं, त्रिभुवनके गुरु और ईश हैं, उन भगवान् दक्षिणामूर्तिको
मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥
आश्चर्य
तो यह है कि उस वटवृक्षके नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं।
साथही गुरुका व्याख्यान भी मौन भाषामें है, किंतु उसीसे शिष्योंके संशय
नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥
॥ इति श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥
sharing on face-book! Thanks!!
ReplyDeleteYou are Welcome Vinay ji. Regards!
DeleteVery good excerpts. Regards.
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