शीश गंग अर्धँग पार्वती, सदा विराजत कैलासी ।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैँ, धरत ध्यान सुर सुखरासी ॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह, बैठे हैँ शिव अविनाशी ।
करत गान गन्धर्व सप्त स्वर, राग रागिनी मधुरा-सी ॥
यक्ष-रक्ष भैरव जहँ डोलत, बोलत हैँ वनके वासी ।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैँ गुंजा-सी ॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु, लाग रहे हैँ लक्षासी ।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत, करत दुग्धकी वर्षा-सी ॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी ।
नित्य छहोँ ऋतु रहत सुशोभित, सेवत सदा प्रकृति-दासी ॥
ऋषि-मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी ।
ब्रह्मा-विष्णु निहारत निसदिन, कछु शिव हमकूँ फरमासी ॥
ऋद्धि सिद्धिके दाता शङ्कर, नित सत् चित् आनँदराशी ।
जिनके सुमिरत ही कट जाती, कठिन काल-यमकी फाँसी ॥
त्रिशूलधरजीका नाम निरंतर, प्रेम सहित जो नर गासी ।
दूर होय विपदा उस नरकी, जन्म-जन्म शिवपद पासी ॥
कैलाशी काशीके वासी, अविनाशी मेरी सुध लीजो ।
सेवक जान सदा चरननको, अपनो जान कृपा कीजो ॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय, अवगुण मेरे सब ढकियो ।
सब अपराध क्षमाकर शङ्कर, किँकर की विनती सुनियो ॥
Listen to:
http://youtu.be/U0dwEwDG5Qs
No comments:
Post a Comment