Thursday, December 2, 2010

* शिवमहिम्न:स्तोत्रम *

 

॥ शिवमहिम्नः स्तोत्रम ॥





महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥ १  

:: (गन्धर्वराज पुष्पदंत भगवान शंकर की स्तुतिके उपक्रम में कहते हैं-) 'हे पाप हरण करनेवाले शंकरजी ! आपकी महिमा के आर-पार के ज्ञानसे रहित सामान्य (अल्प ज्ञानवान) व्यक्तिके द्वारा की गयी आपकी स्तुति यदि आपके स्वरुप (महात्म्य)- वर्णन के अनुरूप नहीं है तो (फिर) ब्रह्मादि देवों की वाणी भी आपकी स्तुति के अनुरूप नहीं है (क्योंकि वे भी आपके गुणों का सर्वथा वर्णन नहीं कर सकते)। किन्तु जब सभी लोग अपनी-अपनी बुद्धि (- की शक्ति)-के अनुसार स्तुति करते हुए उपालम्भ के योग्य नहीं माने जाते हैं, तब मेरा भी स्तुति करने का (यह) प्रयास अपवाद रहित ही होना चाहिए' (यह प्रयास खंडनीय नहीं है) ॥ १ ॥ 


अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वार्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥ २

:: आपकी महिमा वाणी और मनकी पहुँचसे परे है आपकी उस महिमाका वेद भी (आश्चर्य- ) चकित (भयभीत) होकर (निषेधमुखेन) नेति-नेति कहते हुए आशयरुपमें वर्णन करते हैं। फिर तो ऐसे अचिन्त्य महिमामय आप किसकी स्तुतिके विषय (वर्ण्य) हो सकते हैँ? अर्थात किसीकी स्तुति तदर्थ समर्थ नहीं हो सकती; क्योंकि आपके गुण न जाने कितने प्रकारके हैं अर्थात अनन्त हैं। फिर भी हे प्रभो ! नवीन परम रमणीय आपके (सगुण- ) रुपके विषयमें वर्णनके लिये किसका मन आसक्त नहीँ होता और किसकी वाणी उसमें प्रवृत्त नहीं होती? अर्थात- सबके मन-वचन सगुणरुपमें संलग्न हो जाते है- सभी अपनी वाणीको प्रेरित करके वर्णनमें लगा देते हैं ॥ २ ॥


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत-
स्तव ब्रह्मन किँ वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ॥ ३

:: 'हे भगवन ! मधुसे सिक्त-सी अत्यंत मधुर एवं परम उत्तम अमृतरूप वेदवाणीकी रचना करनेवाले ब्रह्मदेवकी वाणी भी क्या आपके गुणोंको प्रकाशितकर आपको चमत्कृत कर सकती है? (कदापि नहीं) फिर भी हे त्रिपुरारी ! मेरी बुद्धि आपके गुणानुवाद जनित पुण्य से अपनी इस (मलिन वासनासे भरी अतएव अपवित्र) वाणी को पवित्र करनेके लिए (ही) आपके गुण-कथनके द्वारा (की जानेवाली) स्तुतिके विषयमें उद्यत है' (न कि अपने स्तुति-कौशलसे आपका अनुरंजन करूंगा-- यह मेरा अभिप्राय है) ॥ ३ ॥
 


तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीँ
विहन्तुं व्याक्रोशीँ विदधत इहैके जडधियः ॥ ४

:: 'हे वर देनेवाले शिवजी ! आप विश्व का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं- ऐसे ऋग्वेद, सामवेद (वेदत्रयी) निष्कर्ष रूप से वर्णन करते हैं । इसी प्रकार तीनों गुणों से विभिन्न त्रिमुर्तियों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश)- में बनता हुआ जो इस ब्रह्माण्डमें आपका वह प्रख्यात (रचनात्मक, पालानात्मक एवं संहारात्मक) ऐश्वर्य हैं, उसके विषयमें खंडन करनेके लिए कुछ जड़बुद्धि अकल्याणभागी (मन्दों) अभागों (नास्तिकों)- को मनोहर लगनेवाला पर वास्तवमें अशोभनीय या हानिकारक व्यर्थका मिथ्याप्रलाप (बकवाद) उठाते हैं' ॥ ४ ॥


किमीहः किँ कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ५

:: 'हे वरद भगवन ! वह विधाता त्रिभुवन का निर्माण करता है तो उसकी कैसी चेष्टा होती है ? उसका स्वरुप क्या है ? फिर उसके साधन क्या हैं ? आधार अर्थात जगत का उपादान कारण क्या है ?- इस प्रकार का कुतर्क, सब तर्कों से परे अचिन्त्य ऐश्वर्य वाले आपके विषय में निराधार एवं नगण्य (उपेक्षित) होता हुआ भी सांसारिक (साधारण) जनों को भ्रम में डालने के लिए कुछ मूर्खों को वाचाल बना देता है' ॥ ५ ॥ 


अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ ६

:: हे देव ! श्रेष्ट अवयववाले (शारीरधारी) होते हुए भी ये लोक क्या बिना जन्म के ही है? (नहीं, कदापि नहीं;) क्या विश्वकी सृष्टि-पालन-संहार आदि क्रियाएं बिना (अधिष्ठान) कर्ताके माने संभव हो सकती है ? या ईश्वरके बिना कोई सामान्य जीव ही अधिष्ठान या कर्ता हो सकता है ? (नहीं; क्योंकि) यदि असमर्थ जीव ही कर्ता है तो चौदह भुवनों की सृष्टिके लिए उसके पास क्या साधन हो सकता है ? (इस प्रकार आपके अस्तित्व के प्रमाण सिद्ध होनेपर भी) यत: वे (जड़बुद्धि) शङ्का करते हैं, अतः वे बड़े अभागी हैं' ॥ ६ ॥


त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्तवमसि पयसामर्णव इव ॥ ७

:: 'ऋक्, यजुः, साम - ये वेद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, पाशुपतमत, वैष्णवमत आदि विभिन्न मत-मतान्तर हैं। इनमें (सभी लोग हमारा) यह मत उत्तम है, हमारा मत लाभप्रद है (दूसरोंका नहीं; )- इस प्रकारकी रुचियोंकी विचित्रतासे सीधे-टेढ़े नाना मार्गोंसे चलनेवाले साधकोंके लिये एकमात्र प्रातव्य (गन्तव्य) आप ही हैं। जैसे सीधे-टेढ़े मार्गोंसे बहती हुई सभी नदियाँ अन्तमें समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार सभी मतानुयायी आपके ही पास पहुँचते हैं'॥ ७ ॥

 
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति च भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रयमति ॥ ८

:: हे वरदानी शङ्कर ! बूढ़ा बैल, खटियेका पावा, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल - बस इतनी ही आपके कुटुम्ब-पालनकी साम्रगी है । फिर भी इन्द्रादि देवताओंने आपके कृपाकटाक्षसे ही उन अपनी विलक्षण (अतुलनीय) समृद्धियों (भोगों)- को प्राप्त किया है; किंतु आपके पास भोगकी कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि विषयवासनारुपी मृगतृष्णा स्वरुपभूत चैतन्य आत्माराममें रमण करनेवालेको भ्रमित नहीं कर पाती है ॥ ८ ॥
 


ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ ९

:: 'हे त्रिपुरारी ! कोई वादी इस सम्पूर्ण जगत को ध्रुव (नित्य) कहता है, कोई इस सबको अध्रुव (असत न अनित्य) बताता है और कोई तो विश्व के समस्त पदार्थोंमें कुछ नित्य और कुछ अनित्य है-- ऐसा कहता है. उन सब वादोंसे आश्चर्यचकित-सा मैं उन्ही वादों (स्तुति-प्रकारों)- से आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं हो रहा हूँ; क्योंकि मुखरता (वाचालता) धृष्ट होती ही है' (उसे लज्जा कहाँ ?) ॥ ९ ॥


तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चो हरिरधः
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः ।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ १०

:: 'हे गिरीश ! (अग्नि-स्तम्भ के समान) आपका जो लिंगाकार तैजस रूप (ऐश्वर्य) प्रकट हुआ उसके ओर-छोर को जानने के लिए ऊपर की ओर ब्रह्मा तथा नीचे की ओर विष्णु बड़े प्रयत्न से गए; पर, (वे दोनों ही) पार पाने में असमर्थ रहे। तब उन दोनों ने श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण बुद्धि से नतमस्तक हो आपकी स्तुति की। (तब उनकी स्तुति से प्रसन्न हो) आप उन दोनों के समक्ष प्रकट हो गए। हे भगवन ! श्रद्धा-भक्तिपूर्वक की गयी आपकी सेवा (स्तुति) क्या फलीभूत नहीं होती ?' (अर्थात अवश्य फलीभूत होती है) ॥ १० ॥

अयत्नापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद् बाहूनभृत रणकण्डुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणाम्भोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥ ११

:: 'हे त्रिपुरारि ! दशमुख रावणने तीनों भुवनोंका निष्कण्टक राज्य बिना प्रयत्न (अनायास) प्राप्तकर जो अपनी भुजाओंकी युद्ध करनेकी खुजलाहट न मिटा सका (प्रतिभटसे युद्ध करनेकी इच्छा पूर्ण न कर सका; क्योंकि कोई प्रतिभट मिला ही नहीं), यह आपके चरणकमलोंमेँ अपने दस सिररुपी कमलोंकी बलि प्रदान करनेमें प्रवृत्त आपमें अविचल भक्तिका ही प्रभाव है' ॥ ११ ॥ 


अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥ १२

:: 'हे त्रिपुरारि ! आपकी सेवासे रावणकी भुजाओंमें शक्ति प्राप्त हुई थी। अभिमानमें आकर वह अपना भुजबल आपके निवास-स्थान कैलासके उठानेमें भी तौलने लगा, पर आपने जो पैरके अँगूठेकी नोकसे जरा-सा कैलासको दबा दिया तो उस रावणकी प्रतिष्ठा (स्थिति) पातालमेँ भी दुर्लभ हो गयी। (वह नीचे-ही-नीचे खिसकता चला गया।) प्रायः यह निश्चित है कि नीच व्यक्ति समृद्धिको पाकर मोहमें फँस जाता है' (कृतघ्न हो जाता है) ॥ १२ ॥


यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती-
मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः । 
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयो-
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥ १३

:: 'हे वरदानी शंकर ! त्रिभुवनको वशवर्ती बनाने वाले बाणासुरने इंद्र की अपार (परमोच्च) संपत्तिको भी जो अपने समक्ष नीचा कर दिया, वह आपके चरणोंके शरणागत (सेवक) उस बाणासुरके विषयमें यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपके समक्ष सर झुकाना (नतमस्तक होना) किसी (किस-किस विषय की) उन्नति के लिए नहीं होता? अर्थात आपके चरणों में सर झुकाने से सबकी सब प्रकार की उन्नति होती है' ॥ १३ ॥ 


अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा-
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयनविषं संह्यतवतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिनः ॥ १४

:: 'हे त्रिनेत्र शंकर ! समुद्र मंथनसे उत्पन्न विषकी विषम ज्वालासे असमयमें ही ब्रह्माण्ड के नाश के भय से चकित देवों और दानवों पर दयार्द्र होकर विषपान करनेवाले आपके कंठमें जो कालापन (नीला धब्बा) है, वह क्या आपकी शोभा नहीं बढ़ा रहा है। (अर्थात महोप्कार के कार्य से उत्पन्न होने के कारण और अधिक शोभा बाधा रहा है।) वस्तुत: संसार के भय को दूर करने के स्वभाव वाले महा पुरुषों का विकार भी प्रशंसनीय होता है' ॥ १४ ॥
 


असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥ १५

:: 'हे जगदीश ! जिस कामदेवके बाण देव, असुर एवं नरसमूह रुप विश्वमें नित्य विजेता रहे, कहीं भी असफल होकर नहीं लौटते थे, वही कामदेव जब आपको अन्य देवताओं के समान (जेय) समझने लगा, तब आपके देखते ही वह स्मृतिमात्र शेष रह गया (भस्म हो गया) और (सच है कि) जितेन्द्रियों का अपमान (उन्हें विचलित करनेका उपक्रम) कल्याणकारी नहीं (अपितु घातक) होता है' ॥ १५ ॥


महि पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौःस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ १६

:: 'हे ईश ! जब आप ताण्डव (नर्तन) करते हैं तब आपके पैरोंके आघात (चोट)- से पृथ्वी अचानक संशय (संकट)- को प्राप्त हो जाती है; आकाशमण्डल के गृह-नक्षत्र-तारे- आपके घूमते हुए भुजदण्ड (की चोट)- से पीड़ित हो जाते हैं (अतः आकाश मंडल भी संकट ग्रस्त हो जाता है)। स्वर्ग आपकी खुली (बिखरी) हुयी जटाओं के किनारोंकी चोटसे बारम्बार दुःख:द स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यद्यपि आप जगत की रक्षाके लिए ही ताण्डव करते हैं; फिर भी आपकी प्रभुता (तो) वाम (क्षोभद) हो ही जाती है' (सच है संपत्ति वालेका उचित कार्य भी विक्षोभ उत्पन्न कर देता है) ॥ १६ ॥


वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥ १७

:: 'हे जगदीश ! समस्त आकाशमें फैले तारोंके सदृश फेनकी शोभावाला जो गंगाजलका प्रवाह है, वह आपके सिरपर जलबिंदुके सामान (छोटा) दिखाई पड़ा और (सिरसे नीचे गिरनेपर) उसी जलबिंदुने समुद्ररुपी करधनी (वलय)- के भीतर संसारको द्वीपके सामान बना दिया। बस, इसीसे आपका दिव्य शरीर सर्वोत्कृष्ट है - यह अनुमेय हो जाता है' ॥ १७ ॥


रथ क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि-
र्विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥ १८

:: हे परमेश्वर ! त्रिपुरासुररुपी तृणको दग्ध करने के इच्छुक आपने पृथ्वी को रथ, ब्रह्माको सारथि, सुमेरुपर्वतको धनुष, चन्द्र और सूर्यको रथके दोनों चक्के और चक्रपाणी विष्णुको (जो) बाण बनाया, (तो) यह सब आडम्बर (समारम्भ) करने का क्या प्रयोजन था? (सर्वसमर्थ आप उसे अपने इच्छा मात्र से जला सकते थे) निश्चय ही अपने वशवर्ती (हाथमें स्थित) खिलौनोंसे खेलती हुयी ईश्वरकी बुद्धि पराधीन नहीं होती' (अर्थात वह स्वन्त्ररूपसे अपने खिलौनोंसे खेलती रहती है) ॥ १८ ॥


हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो-
र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥ १९

:: 'हे त्रिपुरारी ! भगवान विष्णुने आपके चरणोंमें एक सहस्त्र कमल चढ़ानेका संकल्प किया था। उनमें जो एक कमल कम पड़ गया तो उन्होंने अपना ही नेत्रकमल उखाड़ कर चढ़ा दिया। बस, उनकी यही भक्ति की पराकाष्ठा सुदर्शन चक्रका स्वरुप धारण कर त्रिभुवन की रक्षाके लिए सदा जागरूक है ' (भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर श्रीविष्णु को चक्र प्रदान कर दिया था, जो विश्व का संरक्षण अनुग्रह-निग्रह द्वारा करता है) ॥ १९ ॥


क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥ २०

:: 'हे त्रिपुरारी ! (बिना फल दिए ही) यज्ञादि के समाप्त हो जानेपर यज्ञकर्ताओं का यज्ञफलसे सम्बन्ध करनेके लिए (फल दिलानेके लिए) आप तत्पर रहते हैं। कर्म तो करनेके बाद नष्ट हो जाता है (वह जड़ है)। अतः चेतन परमेश्वरकी आराधनाके बिना वह नष्ट कर्म फल देनेमें समर्थ नहीं होता है। इसलिए आपको यज्ञोंके फल देनेमें समर्थ दाता देखकर पुण्यात्मालोग वेदवाक्योंमें श्रद्धा-विश्वास रखकर (यज्ञ-) कर्म में तत्पर रहते हैं' ॥ २० ॥


क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां-
षीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुभ्रेषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥ २१

:: 'हे शरणदाता शंकर ! कार्यमें कुशल प्रजाजनोंका स्वामी प्रजापति दक्ष यज्ञका यजमान (क्रतुपति) बना था। त्रिकालदर्शी ऋषिगण याज्ञिक (यज्ञ करानेवाले आदि) थे। देवगण यज्ञके सामान्य सदस्य थे। फिर भी यज्ञके वितरणके व्यसनी आपसे ही यज्ञका विध्वंस हो गया। अतः यह निश्चित है कि अश्रद्धासे किये गए यज्ञ (कर्म) कर्ताके विनाशके लिए ही सिद्ध होते हैं' (दक्ष ने श्रद्धावर्जित यज्ञ किया था) ॥ २१ ॥


प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतां रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥ २२

:: 'हे स्वामिन ! (एक बार) कामुक ब्रह्माने अपनी दुहितासे हठपूर्वक रमन करनेकी इच्छा की। वह लज्जासे मृगी बनकर भागी; तब ब्रह्मा भी मृग बनकर उसके पीछे दौड़े। आपने उन्हें दण्ड देनेके लिए मृगके शिकारीके वेगके सामान हाथ में धनुष लेकर बाण चला दिया। स्वर्गमें जानेपर भी ब्रह्मा आपके बाण से भयभीत हो रहे हैं। उन्हें बाण ने आज भी नहीं छोड़ा है; अर्थात ब्रह्मा 'मृगशिरा' नक्षत्र बनकर भागे तो बाण 'आर्द्रा' नक्षत्र बनकर आज भी पीछा करता है' (ये दोनों आकाशमण्डल में आगे-पीछे देखे जा सकते हैं) ॥ २२ ॥


स्वालावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना-
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥ २३

:: 'हे त्रिपुरारी ! हे यमनियमपरायण ! हे वरद शंकर ! अपने सौंदर्य से शिवपर विजय प्राप्त कर लूँगा' --- इस सम्भावनासे हाथमें धनुष उठाये हुए कामदेवको सामने ही तुरंत आपके द्वारा तिनकेकी भाँति भस्म होता हुआ देखकर भी यदि देवी (पार्वतीजी) अर्धनारीश्वर (आधे शरीरमें पार्वतीको स्थान देने) --- के कारण आपको स्त्रीभक्त जानती हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि स्त्रियां (स्वभावत:) अज्ञानी होती हैं' ॥ २३ ॥
P.S.(पुष्पदंताचार्य रचित महानतम इस शिवमहिम्न: के इस श्लोक के अर्थ अनुवाद
में किस सन्दर्भमें स्त्रियोंको अज्ञानी कहता है, यह मेरी समझ के परे है- अतः हम इस वाक्यके लिए क्षमाप्रार्थी हैं) !


श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचरा-
श्चिताभस्मालेपः स्त्रगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मङ्गलमसि ॥ २४

:: हे कामरिपु ! हे वरद शङ्करजी ! आप श्मशानों में क्रीड़ा करतेहैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथीहैं, चिताकी भस्म आपका अङ्गराग है, आपकी मालाभी मनुष्यकी खोपड़ियों की है। इस प्रकार यह सब आपका अमङ्गल स्वभाव (स्वाँग) देखने में भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करनेवाले भक्तोंके लिए तो आप परम मङ्गलमय ही हैं।। २४ ।।


मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः
प्रह्यष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्सङ्गितदृशः ।
यदालोक्याह्लादं ह्यद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ॥ २५

:: 'हे प्रभो ! (शम-दम आदि साधनोंसे सम्पन्न) यमीलोग शास्त्रोपदिष्ट विधिसे - वायु रोककर (प्राणायामकर) ह्रदयकमलमें मनको बहिर्मुखी (संकल्प-विकल्पात्मक) सभी वृत्तियोंसे शून्य करके अपने भीतर जिस किसी विलक्षण (आनन्दरुप परब्रह्म चिन्मात्र) तत्त्वका दर्शन कर रोमाञ्चित हो जाते हैं और उनकी आँखें आनन्दके आँसुओंसे भर जाती हैं । उस समय मानो वे अमृतके समुद्रमें अवगाहन कर दिव्य आनन्दका अनुभव करते हैं; वह निर्गुण आनन्दस्वरुप ब्रह्म निश्चयरुपसे आप ही हैं' ॥ २५ ॥ 


त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह-
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥ २६

:: हे भगवन् ! परिपक्व बुद्धिवाले प्रौढ़ विद्वान्--आप सूर्य हैं, आप चन्द्र हैं, आप पवन हैं, आप अग्नि हैं, आप जल हैं, आप आकाश हैं, आप पृथ्वी हैं, आप आत्मा हैं--इस प्रकारकी सीमित अर्थयुक्त वाणी आपके विषयमें कहते रहे हैं; पर हम तो विश्वमें ऐसा कोई तत्त्व (वस्तु) नहीं देखते (जानते) जो स्वयं साक्षात् आप न हों ॥ २६ ॥


त्रयीँ तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा-
काराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्  तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वं शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥ २७

:: 'हे शरण देनेवाले ! ओम्-- यह शब्द अपने व्यस्त (पृथक्-पृथक् अक्षरवाले) अकार, उकार, मकाररुपसे तीनों वेद (ऋक्, यजुः, साम), तीनों अवस्था (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति), तीनों लोक (स्वर्ग-भूमि-पाताल), तीनों देवता (ब्रह्मा-विष्णु-महेश), तीनों शरीर (स्थूल-सूक्ष्म-कारण), तीनों रुप (विश्व-तैजस-प्राज्ञ) आदिके रुपमें आपका ही प्रतिपादन करता है तथा अपने अवयवोंके समष्टि (संयुक्त-समस्त)- रुप (ओम्)- से निर्विकार निष्कल तीन अवस्था एवं त्रिपुटियोंसे रहित आपके तुरीय स्वरुपकी सूक्ष्म ध्वनियोंसे ग्रहणकर प्रतिपादन करता है' ( ॐ आपके स्वरुपका सर्वतः निर्वचन करता है ) ॥ २७ ॥

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते ॥ २८

:: हे महादेव ! आपके जो आठ अभिधान (नाम)- भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान हैं, उनमें प्रत्येकमें वेदमन्त्र भी पर्याप्त मात्रामें विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामोंमें विचरते हैं; अर्थात् वेद-पुराण सभी आठों नामोंका अतिशय प्रतिपादन करते हैं । अतः परम प्रिय एवं प्रत्यक्ष समस्त जगत् के आश्रय आपको मैं साष्टाङ्ग प्रणाम करता हूँ ॥ २८ ॥


नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥ २९

:: 'हे अति निकटवर्ती और एकान्त (निर्जन) वन-विहारके प्रेमी ! आपको प्रणाम है; अति दूरवर्ती आपको प्रणाम है । हे कामारि ! अति लघु (सूक्ष्मरुपधारी) आपको प्रणाम है । हे अति महान ! आपको प्रणाम है । हे त्रिनेत्र ! वृद्धतम आपको नमस्कार है; अत्यन्त युवक ! आपको प्रणाम है । सर्वस्वरुप ! आपको नमस्कार है; परोक्ष, प्रत्यक्ष पदसे परे अनिर्वचनीय सबके अधिष्ठानस्वरुप ! आपको नमस्कार है' ॥ २९ ॥
 

बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥ ३०


:: 'विश्वकी सृष्टिके लिये रजोगुणकी अधिकता धारण करने वाले ब्रह्मारुपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है । विश्वके संहारके लिये तमोगुणकी अधिकता धारण करनेवाले हर (रुद्र)- रुपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है । समस्त जीवोंके सुख (पालन)- के लिये सत्त्वगुणकी अधिकता धारण करनेवाले विष्णुरुपधारी (आप) मृडको बारम्बार नमस्कार है । स्वयं प्रकाश मोक्षके लिये त्रिगुणातीत, समस्त द्वैतसे रहित अद्वैत (आप) शिवको बारम्बार नमस्कार है' ॥ ३० ॥

 

कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥ ३१


:: 'हे वरद शिव ! (अविद्या आदि) कष्टोंके वशीभूत (अल्प शक्तियुक्त) कहाँ तो यह मेरा चित्त और कहाँ सम्पूर्ण गुणोंकी सीमाके बाहर पहुँची सदा (त्रिकाल) स्थायिनी आपकी ऋद्धि (विभूति) । (दोनोंमें बहुत असामनता है ।) इसी भयसे ग्रस्त आपके चरणोंकी भक्तिने मुझे उत्साहित कर आपके चरणोंमें मुझसे वाक्यरुपी पुष्पोपहार, वाक्यकुसुमाञ्जलि, वाक्यचयकी स्तुतिरुपी अञ्जलि समर्पित करायी है' ॥ ३१ ॥ 

 

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ ३२


:: 'हे ईश ! यदि काले पर्वतके समान स्याही हो, समुद्रकी दावात हो, कल्पवृक्षकी शाखाओंकी कलम बने, पृथ्वी कागज बने और इन साधनोंसे यदि सरस्वती (स्वयं) सर्वदा (जीवनपर्यन्त) आपके गुणोंको लिखें तब भी वे आपके गुणोंका पार नहीं पा सकेंगी' ॥ ३२ ॥ 

 

असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले-
र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥ ३३


:: 'इस प्रकार शिवके सभी गणोंमें श्रेष्ठ पुष्पदन्त नामक गन्धर्वने दैत्येन्द्रों, सुरेन्द्रों एवं मुनीन्द्रोंसे पूजित, समस्त गुणोंसे परिपूर्ण होते हुए भी जगदीश्वर चन्द्रशेखर भगवान् शिवजीके इस सुन्दर स्तोत्रको बड़े छन्दोंमें (स्तुति-हेतु) बनाया' ॥ ३३ ॥ 


अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्तया शुद्धचित्तः पुमान् यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ ३४ 

:: जो व्यक्ति पवित्र अन्तःकरण (ह्रदय)- से परम भक्तिके साथ भगवान् शङ्करके इस प्रशंसनीय स्त्रोतका नित्य पाठ करता है, वह इस लोकमें पर्याप्त धन एवं आयुको पाता है, पुत्रवान और यशस्वी होता है तथा (मृत्युके बाद) शिवलोकको प्राप्तकर शिवके समान (आनन्दमग्न) रहता है' ॥ ३४ ॥



महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो परम् ॥ ३५

:: 'महेशसे बढ़कर (उत्तम) कोई देवता नहीं है, (इस) शिवमहिम्नः- स्तोत्रसे बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है । अघोरमन्त्र से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है, गुरुसे बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है' ॥ ३५ ॥ 



दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नः स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३६  

:: 'मन्त्र आदिकी दीक्षा, दान, तप, तीर्थाटन, ज्ञान तथा यज्ञादि- ये सब शिवमहिम्नःस्तोत्रकी सोलहवीं कला (अंश) - को भी नहीं पा सकते' ॥ ३६ ॥


कुसुमदशननामा सर्वगन्धराजः 
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥ ३७

:: बालचन्द्रको सिरपर धारण करनेवाले देवादिधेव महादेवका पुष्पदन्तनामक एक दास, जो सभी गन्धर्वोंका राजा था, इन शिवजीके कोपसे अपने ऐश्वर्यसे च्युत हो गया था । (उसके बाद) उसने इस परम दिव्य शिवमहिम्नःस्तोत्रकी रचना की' (जिससे पुनः उसने उनकी कृपा प्राप्त की) ॥ ३७ ॥

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतु 
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः । 
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः 
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥ ३८ 

:: 'यदि मनुष्य हाथ जोड़कर एकाग्रचित्तसे देवताओं, मुनियोंके पूज्य, स्वर्ख एवं मोक्षको देनेवाले, पुष्पदन्तरचित इस अमोघ (अवश्य फल देनेवाले) स्तोत्रका पाठ करता है तो वह किन्नरोंसे स्तुति (प्रशंसा) प्राप्त करता हुआ भगवान् शिवके समीप (शिवलोकमें) पहुँच जाता है' ॥ ३८ ॥


आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ॥ ३९ 

:: 'पुष्पदन्तरचित यह सम्पूर्ण स्तोत्र (आदिसे अन्ततक) पवित्र है, अनुपम है, मनोहर है, शिव (मङ्गलमय) है । इसमें ईश्वर (शिव)- का वर्णन है' ॥ ३९ ॥


इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः । 
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवाः ॥ ४०

:: 'उस पुष्पदन्तने यह शिवमयी पूजा श्रीमान् शङ्करके चरणोंमें समर्पित की है । उसी प्रकार मैंने भी (पाठरुपी पूजा) समर्पित की है । अतः इससे सदाशिव मुझपर (भी) प्रसन्न हों' ॥ ४० ॥


तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर । 
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥ ४१

:: 'हे महेश्वर ! मैं आपका तत्त्व (वास्तविक रुप) नहीं जानता, आप कैसे हैं - इसका ज्ञान मुझे नहीं है । आप चाहे जैसे हों, वैसे ही आपको बार - बार प्रणाम है' ॥ ४१ ॥
 



एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ ४२

:: 'जो मनुष्य शिवमहिम्नः स्तोत्रका पाठ एक समय, दोनों समय या तीनो समय करेगा, वह समस्त पापों से छुटकारा पाकर शिवलोक में पूजित होगा' ॥ ४२ ॥ 


श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कजनिर्गतेनस्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥ ४३ 

:: पुष्पदन्त के मुखकमल से निकले हुए पापहारी शिवजीके प्रिय इस स्तोत्रको कण्ठस्थ कर एकाग्रचित्त (मनोयोग)- से पाठ करने से समस्त प्राणियोंके स्वामी महेश बहुत प्रसन्न होते हैं' ॥ ४३ ॥
 



॥ इति शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम ॥ 

॥ इस प्रकार शिवमहिम्नः स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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~ ॐ नमः शिवाय  ~